ओशो, ऊंट का काफ़िला
और हम लोग!

ऊँट विचित्र हैं, उसका कोई कल- पुर्जा सीधा नहीं होता। कुछ अवधारणा है यह कुत्ते के समान पूर्णरूपेण पालतू नहीं बनता।
ओशो एक किस्सा सुनते थे। कोई व्यापारी ऊंट बिक्री के लिए ले जा रहा था, राह में रात हो गई, ऊंट रात चरते निकल ना जाएं इस लिए रस्सी से सबको बांधना जरूरी था। एक एक कर सब ऊंट उसने बांध दिए, पर एक के लिए रस्सी कम पड़ गयी। थोड़ी दूर साधू का आश्रम था, व्यापारी रस्सी की खोज में साधु के पास गया और उसको समस्या बताई। साधु पहुंचा हुआ था, उसने कहा- बिना रस्सी ऊंट बंध जाएगा, बस आप खूंटा ठोके और रस्सी बांधने का नाटक करें।
व्यापारी ने वैसा किया- खूंटा ठोका और ऊंट के गले में हाथ फेर गांठ बांधने का नाटक किया। व्यापारी अचंभित रह गया, जब ऊंट अपने को बंधा समझ वहीं बैठ गया। सुबह आगे बढ़ने के लिए जब तैयारी की तो सब ऊंट खड़े हो गए पर वह ऊँट को उठाने पर भी नहीं उठा। व्यापारी फिर पहुंचा उसी साधु के पास और समस्या बताई। साधु बोला, तुमने ऊंट के गले से रस्सी खोली? वह बोला-पर मैंने बांधी ही कब थी। साधु ने समझाया यह तू जानता है, वह ऊंट नहीं। जा अब उसके गले और खूंटे से रस्सी खोलने का नाटक कर। व्यापारी गया और वैसा ही किया। उसे हैरत हुई ऊंट बाकी सब साथियों के साथ जा खड़ा हो गया।
ऐसे ही हम भी कई रस्सियों से जीवन में बंधे चल रहे हैं। किसी साधु को खोजते हैं हमें राह दिखा और बन्धन मुक्त कराए, पर वह नहीं मिलता।