
उत्तराखंड की विविधता में जब भी संस्कृति और धरोहरों का उल्लेख होता है, तो हम अक्सर स्थापत्य, मंदिरों की भव्यता, नृत्य-संगीत या लोककथाओं तक सीमित रह जाते हैं, किंतु किसी भी क्षेत्र की असली आत्मा उसकी थालियों और व्यंजनों में छुपी रहती है। समाज का असली चरित्र भोजन से अधिक कहीं और प्रकट नहीं होता। यह केवल भूख मिटाने का साधन नहीं, बल्कि पीढ़ियों की स्मृतियाँ, परंपराएँ, रिश्तों की गर्माहट और प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की कहानी भी है।
उत्तराखंड का सीमांत विकासखंड डीडीहाट, जो पिथौरागढ़ जिले की ऊँचाइयों और घाटियों में बसा है, इसी पहचान का प्रतीक है। अभिलाषा समिति को बीते दो दशकों में यहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण आजीविका के क्षेत्र में काम करने का अवसर मिला। उस दौरान यह अनुभव हुआ कि डीडीहाट केवल पर्वत, नदियाँ और स्कूलों का भूगोल नहीं, बल्कि गाँव-गाँव में रचे-बसे अनमोल स्वादों का खजाना है। ये स्वाद केवल खाद्य पदार्थ नहीं बल्कि “हिमालय के रत्न” हैं, जिनकी पहचान दिलाना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है। डीडीहाट का ज़िक्र आते ही खेंचूवा की मिठास, बंदरलीमा के छोटे-से दिखने वाले मगर बड़े स्वाद वाले केले, ओगला की नमकीन और पराठों की सादगी, अजेडा-जौरासी के काफल की लालिमा, कनालीछीना की पुरी-पंचौला की सामूहिकता और सूनाकोट की बासमती की सुगंध मानो स्मृतियों की थाल सजाकर सामने रख देती है।
दूध से बनने वाला खेंचूवा यहाँ का सबसे चर्चित व्यंजन है। धीमी आँच पर दूध को घंटों गाढ़ा करने की प्रक्रिया केवल स्वाद ही नहीं, बल्कि धैर्य का पाठ भी सिखाती है। यह मिठाई रिश्तों की मिठास और सामूहिकता की परंपरा का प्रतीक है। गाँव की शादी या धार्मिक आयोजन खेंचूवा के बिना अधूरा माना जाता है। आज जब बंगाल का रसगुल्ला और मथुरा का पेड़ा अपनी पहचान बना चुके हैं, तब यह विश्वास करना कठिन नहीं कि डीडीहाट का खेंचूवा भी आने वाले समय में स्थानीय अर्थव्यवस्था और पर्यटन का आधार बन सकता है। यदि इसे भौगोलिक संकेतक टैग मिले, तो यह न केवल स्वाद बल्कि ग्रामीण महिलाओं और डेयरी किसानों की आजीविका का भी आधार बनेगा।
बंदरलीमा गाँव के छोटे आकार के केले इस क्षेत्र की दूसरी पहचान हैं। भले ही इनका रूप छोटा हो, किंतु स्वाद और सुगंध में ये बड़े-बड़े किस्मों को मात देते हैं। पहाड़ी मिट्टी और ठंडी हवाओं ने इन केलों को अद्भुत गुण दिए हैं। यह संदेश भी इनसे मिलता है कि पहचान का पैमाना आकार नहीं, बल्कि गुणवत्ता होती है। पूजा-अनुष्ठानों से लेकर उपवास तक इनका विशेष महत्व है। यदि इन केलों की ब्रांडिंग की जाए और GI टैग के साथ बाजार में उतारा जाए, तो डीडीहाट कृषि-पर्यटन का नया केंद्र बन सकता है।
ओगला क्षेत्र अपने पराठों और नमकीन के लिए विख्यात है। खेतों से लौटे किसान जब ओगला की गरमागरम नमकीन और पराठों से अपनी थकान मिटाते हैं, तो वह क्षण भोजन नहीं बल्कि जीवन का उत्सव बन जाता है। यहाँ की हर थाली में सामूहिक श्रम और भाईचारे की गर्माहट झलकती है। आज जब पूरी दुनिया में स्लो-फूड आंदोलन की चर्चा हो रही है, तब ओगला की थाली उसकी वास्तविक मिसाल है।
गर्मियों का नाम आते ही काफल की याद हर उत्तराखंडी को अपने बचपन में लौटा ले जाती है। अजेडा-जौरासी के काफल अपनी लालिमा और स्वाद से प्रसिद्ध हैं। “काफल पाको, मिलनी चाखो” जैसा लोकगीत इन्हें केवल फल नहीं, बल्कि मौसम के संदेशवाहक के रूप में स्थापित करता है। काफल तुड़ाई को यदि उत्सव के रूप में विकसित किया जाए, तो यह युवाओं के लिए रोजगार और पर्यटन का आकर्षण बन सकता है।
कनालीछीना की पुरी-पंचौला हर सामूहिक आयोजन का अनिवार्य हिस्सा है। विवाह से लेकर मंदिरों के मेलों तक, यह व्यंजन समरसता का संदेश देता है। जब सब एक साथ बैठकर पुरी-पंचौला खाते हैं, तो जाति, वर्ग और हैसियत की दीवारें ढह जाती हैं। यह सामाजिक एकता की वह मिसाल है, जो भोजन के माध्यम से समाज को जोड़ती है।
यदि स्वाद की इस यात्रा को आगे बढ़ाएँ, तो सबसे अनमोल मोती सूनाकोट की बासमती है। यह चावल केवल भोजन नहीं, बल्कि सुगंध और परंपरा की आत्मा है। यहाँ की घाटियों में जब धान की बालियाँ हवा में लहराती हैं, तो उनकी खुशबू पूरे क्षेत्र को महका देती है। विवाह और पर्वों में इसका पकना सम्मान और मेहमाननवाजी का प्रतीक है। लंबे दाने और अद्भुत सुगंध के कारण सूनाकोट की बासमती किसी भी अंतरराष्ट्रीय ब्रांड से कम नहीं। यदि इसे वैश्विक बाजार तक पहुँचाया जाए, तो डीडीहाट कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का नया केंद्र बन सकता है।
इन सभी स्वादों को एक साथ देखें तो डीडीहाट की पहचान केवल एक सीमांत भूगोल की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति की भी है। यह स्पष्ट हो जाता है कि खेंचूवा की मिठास, बंदरलीमा के केले, ओगला की नमकीन, अजेडा-जौरासी के काफल, कनालीछीना की पुरी-पंचौला और सूनाकोट की बासमती मिलकर डीडीहाट को हिमालय का पाक-रत्न बनाते हैं। यदि सरकार, सामाजिक संस्थाएँ और स्थानीय समुदाय मिलकर इन व्यंजनों की ब्रांडिंग और पैकेजिंग करें, तो यह क्षेत्र न केवल उत्तराखंड बल्कि भारत की भी सांस्कृतिक-आर्थिक विरासत का चमकदार उदाहरण बन सकता है।
यह कहानी केवल भोजन की नहीं है, बल्कि ग्रामीण आजीविका, सांस्कृतिक पर्यटन और सामाजिक समरसता की भी है। जिस तरह दार्जिलिंग की चाय, मैसूर की सिल्क और बनारस की साड़ी वैश्विक पहचान बन चुकी हैं, उसी तरह डीडीहाट का खेंचूवा, बंदरलीमा के केले और सूनाकोट की बासमती भी विश्व मंच पर चमक सकते हैं। यही वह मार्ग है, जो डीडीहाट को सीमांत क्षेत्र की परिभाषा से निकालकर सांस्कृतिक-पर्यटन और आर्थिक उन्नति का केंद्र बना सकता है।
डीडीहाट हमें यह सिखाता है कि वैश्वीकरण की आँधी में भी अपनी पहचान बचाए रखना ही सबसे बड़ी सांस्कृतिक उपलब्धि है। यहाँ का हर व्यंजन एक कहानी कहता है—कभी परिश्रम की, कभी रिश्तों की, तो कभी प्रकृति और मनुष्य के अद्भुत सहअस्तित्व की। इन्हें संरक्षित करना, पीढ़ियों तक पहुँचाना और वैश्विक पहचान दिलाना हम सबका सामूहिक दायित्व है। और जब यह दायित्व पूरा होगा, तभी डीडीहाट की यह थाली, यह सुगंध और यह स्वाद वास्तव में “हिमालय की गोद में संस्कृति के रत्न” कहलाएगी।