अच्छी किताबें क्यों पढ़नी चाहिए?

कभी भी देख लीजिएगा, जिन लोगों के मन में नए-नए विचार पैदा होते हैं वो किस तरह होते हैं। आप एक अच्छी फिल्म देख रहे हैं या कोई किताब पढ़ रहे हैं तो दिमाग़ अपना खेल खेलना शुरु करता है। हम अब तक इंसानी दिमाग़ की मशीनरी को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं, पर एक शानदार चीज़ पढ़ते वक़्त दिमाग़ बहुत उपजाऊ हो जाता है और एक के बाद एक नई नई बातें सूझने लगती हैं, जिनका उस पढ़े हुए से वास्ता हो भी सकता है या बिल्कुल भी नहीं हो सकता है।

इस क़िताब में किशनगढ़ की बणी-ठणी भी है और कश्मीर के गायक भी, जिसमें दिल्ली की गलियां भी हैं और ग़ालिब के शेर भी, जौक भी हैं और दाग़ भी, ऊँचे दर्जे की फारसी शायरी है और शातिर ठग भी, नवाबों की ठसक भी है और अंग्रेजों की धूर्तता भी, आखिरी मुग़ल ज़फर भी हैं और उनकी सबसे कमसिन और तेज़-तर्रार बेगम जीनत महल भी। इन सात सौ पन्नों में इतना कुछ है कि उसे बयान करना मुश्किल है।     

औरंगजेब दाहोद में जन्मा था, गांधी पोरबंदर में, सरदार पटेल नाडियाद में, नरेन्द्र मोदी वडनगर में। पैदाइश से ये सब गुजराती हैं। सिर्फ़ औरंगजेब को बाहर का माना जाता है। वजह उसके पुरखों का काबुल से आने से ज़्यादा उसका धर्म है। वरना बाबर की आखिरी इच्छा के मुताबिक़ उसे काबुल में दफ़नाया गया और काबुल तो सम्राट अशोक के साम्राज्य का हिस्सा था। ‘अखंड भारत’ का हिस्सा तो आज भी है। महाभारत के मुताबिक गांधारी भी अफगानिस्तान की थी।

किताब में एक मज़ेदार किस्सा है कि कैसे एक अंग्रेज अफसर दिल्ली में अपनी सवारी निकलते हुए बिलकुल वैसे ही बर्ताव करता है जैसे कभी आलमगीर किया करते थे लेकिन अपनी पूरी कोशिश के बावजूद औरंगज़ेब की एक भद्दी नक़ल के ज़्यादा कुछ नहीं लग पाता। अंग्रेजों ने खुद को मुगलों के बराबर दिखाने की बहुत कोशिश की लेकिन इस मुल्क़ में वो कभी वो इज़्ज़त हासिल नहीं कर पाए और उसकी वजह ये है कि मुग़ल इस मुल्क को लूट नहीं रहे थे, जबकि ज़्यादातर अंग्रेजों का इस मुल्क से कभी कोई जज़्बाती लगाव नहीं रहा।

हमें बचपन में ही इस तरह नहीं समझाया गया कि ये लड़ाई ना किसी धर्म के बीच थी और ना अंदरूनी और बाहरी ताकतों के बीच। ये सदियों से चलते आ रहे सत्ता संघर्ष के अलावा और कुछ नहीं था जिसमें धर्म को भी हथियार की तरह उपयोग में लिया जाता था और आज भी लिया जाता है। आज भी कुर्सी की लडाई में धर्म एक हथियार से ज़्यादा कुछ नहीं।

भारत हमेशा से एक विचारवान देश रहा है। गहरे फलसफे में डूबा हुआ देश। बाहर से जितनी भी छोटे मोटे आक्रमण हुए या जातियां आई, भारत ने उन सबको अपने में समेट लिया और अपना बना लिया। फिर सदियों बाद अरब के रेगिस्तान में एक बहुत बड़ा बवंडर उठा जो सबको अपने में लपेटता हुआ भारत की तरफ बढ़ा। भारत, जिसकी हैसियत एक विशाल बरगद जैसी थी उससे इस्लाम का ये बवंडर आकर भिड़ा। बरगद को उखाड़ पाना संभव नहीं था, उसकी जड़ें बहुत गहरी थी लेकिन बवंडर में भी जवानी का जोश था, वैसी उमंग थी जैसे एक नए नौजवान में होती है। तो जब इन दो विशाल संस्कृतियों का टकराव हुआ तो कुछ ऐसी मिली-जुली तहज़ीब बनी जो सिर्फ़ इसी धरती पर बन सकती थी, आज भी सिर्फ़ यहीं मौजूद है। भारतीय मुसलमान अपने आप में एक अलग कैरेक्टर हैं।

मणि कौल बहुत बड़े फिल्मकार हैं, उनका कहना है कि ग़ालिब सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही पैदा हो सकते थे, कहीं और उनका होना संभव नहीं था।

“ना था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता”

ये खुद के खुदा होने की बात भारतीय परंपरा में उपनिषदों से आती है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ यानि कि मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही खुदा हूँ। और किसी मुल्क़ का शायर ये कहने की गुस्ताख़ी नहीं करेगा। ग़ालिब ये भारत की धरती पर ही कह सकते थे। ग़ालिब भारत में ही हो सकते थे। भारतीय मुसलमान का चरित्र औरों से जुदा है वो इसलिए कि उसमें इस मिट्टी का चरित्र भी समाया हुआ है। ये दो तहजीबों के मिलन से संभव हुआ है।

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