रोते हुए बच्चे की आवाज़ से उसकी नींद टूटी। आधी खुली, आधी बंद आँखों से उसने तुरंत बच्चे को अपनी छाती से चिपका लिया। अमृत की दो बूंदे पेट में पहुंची, बच्चा चुप हो गया। अब अपनी गोल-मटोल आँखों से वो माँ को देख रहा था। माँ बेहद थकी हुई थी।

गहरी थकान के बावजूद नन्हें की आँखों की चमक ने माँ के सूखे होठों पर एक मुस्कान ला दी। नींद थी कि माँ को अपने आगोश में खींच रही थी, मासूम था कि अपनी नन्हीं बंद मुठ्ठियों से उसके चेहरे को सहला रहा था।
‘इस वक़्त मैं दुनिया की सबसे भाग्यशाली औरत हूँ, इतना खूबसूरत बेटा और बेइंतहा प्यार करने वाला पति… और मुझे क्या चाहिए?’ नरम चादर पर उसने हाथ बढ़ाया तो हाथ जाकर खाली तकिए को लगा। इसकी आँखें खुल गई।
‘ये कहाँ गए!’
बच्चा अब सो चुका था। माँ ने उसे धीरे से थपकाया, अपने आपको ढका और खड़ी हो गई।
‘इतनी सुबह-सुबह ये कहाँ चले गए?’ कमरा छोड़ने से पहले वो बच्चे के चारों तरफ़ तकिए लगाना ना भूली। रेशम सा बच्चा और रेशमी चादर,ना जाने कब सरक जाए!
बड़ा खूबसूरत कमरा था। देखकर लगता था कि ये किसी राजकुमार का शयनकक्ष ही हो सकता है। इस औरत ने चारों तरफ़ देख लिया, कोई नहीं था। अभी तो उषाकाल भी ख़त्म न हुआ था, पंछी भी घोसलो में दुबके पड़े थे, फिर ये कहाँ चले गए!
“द्वारपाल”, निस्तब्ध शान्ति को चीरती हुई आवाज़ गूंजी, “द्वारपाल”
कुछ पलों के बाद द्वारपाल दौड़ता आया। वो भी उनींदा ही था।
“राजकुमार कहाँ हैं?”
द्वारपाल ने भी चारों तरफ़ नज़र दौडाई,
“यहाँ नहीं हैं इसलिए ही तो तुम्हें पुकारा है” द्वारपाल बाहर दौड़ गया।
दो पहर बीत चुके थे, सूरज सर पर चढ़ आया था लेकिन राजकुमार की कोई खबर अब तक नहीं थी। चारों दिशाओं में सैनिक दौड़ाये जा चुके थे। आशंका की लकीरें रानी के माथे पर साफ़ देखी जा सकती थी। वो कभी बैठती थी, कभी उठती थी, कभी तेज़ क़दमों से द्वार की तरफ़ जाती, कभी वापस लौट कर फिर बैठ जाती। किसी भी अवस्था में दो पल का भी चैन नहीं था।
‘हे ईश्वर!!! उन पर कोई आंच ना आई हो’
तभी सेनापति ने कक्ष में प्रवेश किया।
“कुछ पता चला”, अधीर रानी ने पूछा।
सेनापति सर झुकाए खड़ा था। रानी को उसकी आशंका सच होती नज़र आ रही थी।
“बोलते क्यूँ नहीं? क्या हुआ है उन्हें? कहीं कुछ अनहोनी…”
“नहीं नहीं देवी… राजकुमार बिलकुल ठीक हैं, वो सकुशल हैं”
“ठीक हैं… ठीक हैं तो कहाँ है? अपने साथ लाए क्यूँ नहीं उन्हें?”
सेनापति ने सर झुका लिया, “उन्होंने लौटने से इनकार कर दिया…”
“क्या!”
“राजकुमार सिद्धार्थ कह रहे हैं कि अब उनका किसी से कोई वास्ता नहीं। ना इस घर से, ना नगर से, ना राज्य से”
“और मुझसे!”, चीत्कार करते मन ने पूछा।
“ना आपसे… और ना ही राजकुमार राहुल से…” सेनापति की जुबान लड़खड़ा गई। उसकी नज़रें झुक गई, “उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है देवी। वो अब सन्यासी हो गए हैं। माया मोह को छोड़ वो असीम शांति की तलाश में निकल गए हैं। जब वो इसे खोज लेंगे तो वो संसार को नई राह दिखा पाएंगे।”
“राहुल को कौन संभालेगा? और मैं कैसे जिऊंगी?”, यशोधरा ने तड़पकर पूछा।
“उन्होंने कहा है ये सब अब आपको ही सोचना होगा”
यशोधरा सन्न रह गई, ‘हमारे बच्चे के लिए मुझ अकेली को सोचना होगा!’
कभी बादलों को फटते देखा है, कैसा सैलाब आता है! अपने आसपास की सारी दुनिया को बहा ले जाता है। तब ना कोई मनुष्य खड़ा रह सकता है और ना कोई निर्माण। चारों तरफ़ बस जल ही जल। प्रलय का दृश्य साकार हो रहा होता है। पर ये प्रलय बस एक बूंद के समान होती। बादलों का फटना यशोधरा के आंसुओं के आगे कुछ न होता। उसकी चीख से ये सृष्टि गूँज जाती। उसके नयनों की धार नगर को बहा ले जाती। हिमगिरी के उत्तुंग शिखर भी जलप्लावित हो जाते गर…
गर…
गर उसी पल राहुल फिर से ना रो पड़ता।
एक बरस के राहुल की नींद टूट चुकी थी। यशोधरा को पता था उसे भूख लगी होगी। यशोधरा अभी रो नहीं सकती थी।
राधा खूब फूट-फूट कर रोई होगी कृष्ण की विदाई पर। द्रौपदी ने भी खूब नीर बहाए होंगे। सीता राम से अलग होकर अशोक के नीचे बैठी उसे अपने आंसुओं से सींचती रही होगी।
पर यशोधरा नहीं रो सकती थी। भला रोती हुई माँ, रोते हुए बच्चे को कैसे चुप करवाएगी? उसे राहुल को अपने आंसुओं से नहीं बल्कि रक्त से बड़ा करना था। यशोधरा का रक्त जब अमृत बनकर राहुल के कंठ से उतरेगा तब राहुल जवान हो पाएगा। आंसू उस अमृत को ज़हर कर डालेंगे।
‘नहीं, मैं नहीं रो सकती’
यशोधरा ने सब कुछ जज़्ब कर लिया। यशोधरा सारे आंसूं पी गयी। यशोधरा ना चीखी, न चिल्लाई। बस मुड़ी और रोते हुए राहुल को उठा कर अपने सीने से लगा लिया।
सेनापति ने अपने जीवन में बड़े-बड़े युद्ध देखे थे, लेकिन इतना शौर्य उसने पहले कभी नहीं देखा था। ये मर्मान्तक दृश्य देखकर उसकी आँखें छलक जाती, इससे पहले वो तेज़ क़दमों से बाहर निकल गया।
यशोधरा ने राहुल से मुस्कुरा कर कहा,
“चल तुझे काबिल बनाती हूँ… फिर तू भी मुझे छोड़ जाना”
यशोधरा के चेहरे पर दृढ़ता थी और एक सवाल,
“अगर सिद्धार्थ की जगह मैंने ये काम किया होता तो?”
जवाब भी उसी ने दिया,
“एक माँ ऐसा कर ही नहीं सकती थी, मुझे पता है सिद्धार्थ राहुल को बड़ा ना कर पाता। सिद्धार्थ के बस में नहीं है अकेली माँ होना”
अगर सिद्धार्थ की जगह यशोधरा ने ये सब किया होता तो?
क्या हम सब बुद्ध पूर्णिमा की जगह यशोधरा पूर्णिमा भी उसी उत्साह और श्रद्धा से मनाते?