स्वदेश बुलेटिन
“मुझे छू रही हैं तेरी गर्म साँसें,
मेरे रात और दिन महकने लगे हैं
तेरी नर्म साँसों ने ऐसे छुआ है कि
मेरे तो पाँव बहकने लगे हैं”
लता और रफ़ी का गाया बेहद रोमांटिक गीत है, फिलहाल मुद्दे की बात ये है कि सुबह-सुबह पार्क में एक महिला अपनी किसी जानने वाली से वीडियो कॉल पर बात कर रही थी। सनद रहे, जितने भी लोग वीडियो कॉल पर बात करते हैं, इयरफ़ोन इस्तेमाल ना करने की प्रतिज्ञा ले रखी है उन्होंने। और फिर इस तरह चीख-चीख कर बात करते हैं मानो बिना फोन के डायरेक्ट दिल्ली से मुंबई आवाज़ पहुंचानी हो। प्राइवेसी किस चिड़िया का नाम है, ये सीखा ही नहीं इन्होंने।
सोने पे सुहागा ये कि अगर कोई वीडियो कॉल पर बात कर रहा है और उसे स्क्रीन पर एक ही इंसान का चेहरा दिख रहा है तो ना जाने क्यूँ पर वो ये मानकर चलता है कि उसे बस वो एक इंसान ही सुन पा रहा है जबकि हकीक़त ये हैं कि ट्रेन में, बसों में, पार्कों में स्क्रीन पर ना दिख रहे दर्जनों लोग भी उन्हें सुन रहे होते हैं बल्कि आपका डेसिबल लेवल ही ये है कि ना चाहते हुए भी आपकी बात दूसरों के कानों में जा रही है।
घर-बार के लफड़ों से लेकर, सास की बुराई, पड़ोसी के कारनामे, पति की आदतें एक तरह से आप विडियो कॉल के ज़रिये पूरी दुनिया को सुना रहे होते हैं और आसपास बैठे लोग उसका भरपूर आनंद उठा रहे होते हैं।
एक चीज़ होती है ‘सिविक सेन्स’ यानी कि आपको समाज में किस तरह से व्यवहार करना है। अपने फ़ोन पर बात करते हुए चिल्ला कर ना बोलना, गाने सुनते, रील्स देखते या विडियो कॉल करते हुए इयरफ़ोन का इस्तेमाल (भले ही आप अपने घर में बैठे हों) ये ना सिर्फ़ तमीज़ के दायरे में आता है बल्कि निजता का संरक्षण भी करता है।
जब हम सामान्य जीवन में अपनी जिंदगी की अंदरूनी बातें दूसरों के साथ शेयर नहीं करना चाहते तो विडियो कॉल पर चीख-चीख कर बातें करते हुए क्यों अपना मखौल बनवाते हैं?
एक दूसरी कांसेप्ट है ‘स्पेस’ जिसके बारे में भी ना सीखने की हमने कसम उठा रखी है।
दोनों तरह की स्पेस होती है फिजिकल और मेंटल।
आप कहीं भी कतारबद्ध खड़े लोगों को देखिए। एक दूसरे से ऐसे लिपट-चिपट के खड़े होते हैं कि मजाल है बीच में से हवा गुज़र जाए। और ये समस्या बस में चढ़ने को लेकर बनी लाइन से लेकर प्लेन से उतरने के लिए बनी लाइन तक सब जगह है।
माना कि जनसंख्या ज़्यादा है हमारे देश की, लेकिन जगह की इतनी भी कमी भी नहीं है कि आप दो शरीर और एक आत्मा होना चाहें। ज़रा सांस लेने की स्पेस तो दिया कीजिये। ये सिविक सेन्स ही कहलाता है।
फिज़िकल स्पेस तो भाई लड़-झगड़ कर फिर भी समझा दें लेकिन मेंटल स्पेस का तो ज़िक्र ही बेमानी है।
इस बात को बहुत अच्छे से समझने की ज़रूरत है कि कोई भी रिश्ता कितना भी करीबी क्यों ना हो, लेकिन फिर भी हर एक इंसान को दिन में कम से कम दो-ढाई घंटे अकेला रहने की ज़रूरत पड़ती ही है। उस अकेलेपन में भले ही वो सोफ़े पर पड़ा रहे, किसी दूसरे को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए। इसे यूँ समझिए कि जैसे आप अपने फोन को चार्जर पर लगा कर छोड़ देते हैं। वैसे ही एक इंसान को दिन में कुछ समय अपने आप को रिचार्ज होने के लिए चाहिए।
अगर कोई महिला या पुरुष आपको कोने में गुमसुम बैठे दिखें तो उन्हें मत छेड़िए, उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं है वो बस अपनी पर्सनल स्पेस में है। वो परेशान नहीं हैं, वो इस वक़्त चार्जर पर लगे मोबाइल जैसा है।
जिंदगी में, रिश्तों में, काम में, पर्सनल और प्रोफेशनल दोनों जगह लोगों को फ़िजिकल और मेंटल स्पेस की ज़रूरत होती है। ये हर इंसान की मानसिक शांति के लिए बेहद ज़रूरी है। प्राइवेसी और स्पेस के क्षेत्र में हमें काफी कुछ सीखना है अभी।
ऐसे ही टिकट खिड़की में टिकट लेते हुए एक दूसरे के कंधे पर, सिर के ऊपर से हाथ बढ़ाते हुए, आपस में चिपके हुए लोग भूल जाते हैं “एक दूसरे को छू रही हैं कैसी कैसी सांसें”…
बाकी दुनिया से सैकड़ों प्रकाश वर्ष पीछे हैं हम।
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