-सुदेश आर्या
*“मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यूँ रात भर नहीं आती?”
*ज़िंदगी में ‘काश’ की गुंजाइश मत रखिए.
मृत्यु किस दिन आती है? जब भी शरीर का कोई अंग दिल, फेफड़ा, किडनी वगैरह पूरी तरह से काम करना बंद कर दे, मौत आ जाती है। लेकिन वो तो बस एक पल है। सयाने लोग तो यही कहा करते हैं कि जिस दिन हम पैदा हुए, ठीक उसी दिन से मरना शुरू कर देते हैं। हर पल हम मरते हैं, बस कोई एक पल आख़िरी होता है और उस पल को हमने मौत का पल माना है।
अगर जीवन से परेशान हो चुके हैं, तकलीफों से आजिज़ आ चुके हैं तो ‘मर जाइए’। इससे बेहतर सलाह हो नहीं सकती। ‘मर जाना’ सबसे बेहतरीन इलाज है। मार दीजिए दुख देने वाले विचारों को, मार दीजिए उस सोच को, उस पीड़ा को।
कई दोस्तों से हम बरसों बाद मिलते हैं। हम बचपन वापस जीना चाहते हैं तो पता लगता है कि ये तो सब कुछ भुला चुका है। हम उससे पुराने किस्सों की चर्चा करना चाहते हैं तो पता लगता है कि ये ज़िंदगी की आपाधापी में इतना खो चुका है कि अब इसके पास उन किस्सों की कोई याद नहीं। हम जिसे बरसों पहले हँसता-खेलता छोड़ गए थे, आज वो दुखी-उदास मिलता है। तब इतने आधुनिक विचारों का प्यारा दोस्त अब बेहद कट्टर और चिड़चिड़ा हो चुका है। क्या हुआ है उसे? सीधी सी बात है आप जिस इंसान को बरसों पहले छोड़ गए थे वो मर चुका है। अब जिससे मिल रहे हैं ये कोई और है। शरीर हमारे मित्र का है लेकिन आत्मा पुनर्जन्म ले चुकी है।
सिद्धांतों के हिसाब से होना तो उल्टा चाहिए था कि आत्मा कायम रहे लेकिन शरीर ख़त्म हो जाए। लेकिन हमारी ज़िंदगी में, एक ही जीवन में, जो बार-बार मर रही है वो आत्मा है। जो कायम है वो शरीर है।
दोस्तों और रिश्तेदारों की ही क्या बात करें, पंद्रह बरस बाद अपने बचपन के शहर में वापस लौटिए, वो शहर अब नहीं मिलेगा। वो बर्बाद हो चुका है। गलियां बेनूर हो चुकी हैं और सड़कें आवारा। कभी जहाँ नीम का फैलाव था, अब वहां चरस फूंकते नशेड़ी बैठे नज़र आते हैं। जहाँ लहलहाते खेत थे, वहां बदसूरत सी इमारत है। नदी अब सडांध मारता एक नाला है और यारों के अड्डे मॉल की पार्किंग में तब्दील हो गए हैं। शहर के शहर जब ख़त्म हो जाते हैं तो इंसानों की क्या बात की जाए।
फ़ीनिक्स एक ऐसा मिथकीय पक्षी है जिसके बारे में कहा जाता है कि वो अपनी ही राख से वापस जन्म लेता है। ये एक तरह से अमरता, परिवर्तन, उम्मीद, ताकत और आज़ादी का प्रतीक है। आप अपनी ही राख से पैदा हो सको तो इस बात के मायने हैं कि इंसान बार-बार अपने आपको पुनर्सृजित करे। नया सीखे और सीखता रहे। चीज़ों को, इंसानों को, रिश्तों को, विचारों को जितना थामे रखना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी उनसे मुक्त हो जाना भी है।
पीछे मुड़कर अपने दस साल पुराने रूप को देखिए, अगर वो आपको आज से ज़्यादा नादान और पिछड़ा नज़र आता है तो ये ख़ुशी की बात है। वो हमारा पिछला जन्म था। आज जो हम हैं, भले ही खुद को बहुत विवेकशील मानें लेकिन दस साल बाद अगर बिल्कुल इसी रूप में बने रहें तो ये किसी लाश को ढोने से ज़्यादा कुछ नहीं। दस साल में तो मरकर नया जीवन मिल जाना चाहिए। विकास की यही प्रक्रिया होती है।
करोड़ों सालों में एक कोशिका से जटिल मस्तिष्क वाले इंसान बन गए हैं तो ऐसा तो नहीं कि अस्सी बरस के जीवन में वहीं थमकर बैठे रहें। बार-बार मरें और फिर-फिर पैदा हों। एक डोर से जोक की तरह चिपटे न रहें। पुराने रिश्तों की कद्र करें और जीवन में नए रिश्तों को भी स्थान दें शायद तभी आपका मस्तिष्क और विचार विकसित होंगे और जीवन सार्थक कहलाएगा।
फ़ीनिक्स की तरह अपनी ही राख से जन्म लेना है तो इस बार जन्म देने वाले भी हम खुद ही होंगे। औलाद हम हैं, तो माँ-बाप भी हम ही होंगे। प्रसव पीड़ा में सैंकड़ों हड्डियों के टूटने जैसा दर्द होता है। अगर इतनी पीड़ा सह सकते हैं, प्रसव वेदना को बर्दाश्त कर सकते हैं तो ‘मर जाइए’ और जीवन दीजिए दोबारा अपने आपको।
क्या ही खूबसूरत दिन होगा वो, जब हम दोबारा जन्म लेंगे और ज़िंदगी को देखने का नज़रिया ज़्यादा रोशन होगा। फिर से बचपन जिएंगे, फिर से प्रेम करेंगे और फिर से एक बार जीवन जिएंगे। बच्चे की तरह छोड़ दीजिए जीवन की पतवार। इसको कसो मत वर्ना कठोर से कठोरतम बन जाओगे। सरल से सरलतम बनिए, हंसिए खिलखिलाइए। भूल जाइए कोई क्या कह रहा है। जीवन आपका है, जीना भी आपको ही है। बस यही जीवन का ‘सार’ है।
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