काल्पनिक किरदार ज़िंदगी का अटूट हिस्सा बन जाते हैं

स्वदेश बुलेटिन

चाचा चौधरी और साबू को कौन-कौन जानता है? बिल्लू, पिंकी, रमन, श्रीमतीजी, चन्नी चाची, अंकुर, ताउजी, चिंप्पू, मिन्नी, लोटपोट, मामा-भांजा आदि किरदारों की लम्बी लिस्ट है।

और फिर आते हैं दूसरी लिस्ट पर, सुपर कमांडो ध्रुव, नागराज, डोगा, परमाणु, भेड़िया, भोकाल, तिरंगा, तौसी…

तीसरे तरह की लिस्ट है राजन-इकबाल, राम-रहीम, क्रुकबांड, चाचा-भतीजा…

हंसाने में माहिर हैं बांकेलाल, हवलदार बहादुर, फाइटर टोड्स, सुपंदी, कालिया, शिकारी शम्भू, तंत्री मंत्री…

इससे पहले इंद्रजाल के विदेशी किरदार, आबिद सुरती के ढब्बू जी, चम्पक, नंदन, बालहंस, चंदामामा, मधु-मुस्कान, पराग और ऐसी ही ना जाने कितनी पत्रिकाएं और कॉमिक किरदार…

इन सारे किरदारों ने हमारे बचपन को चमकदार बनाया। आज जो लोग बड़ी गहरी क़िताबें पढ़ते हैं उनमें से भी कइयों की शुरुआत कॉमिक वाले को पच्चीस-पचास पैसे देकर किराए पर कॉमिक लेने से शुरू हुई है।

इन काल्पनिक किरदारों को अपने बचपन से निकाल बाहर फेंके तो जीवन का बेहतरीन हिस्सा खो देंगे।

कल्पना से इतिहास भी अछूता नहीं है।

चाणक्य को कुछ लोग ऐतिहासिक और कुछ काल्पनिक कहते हैं। इतिहास के बहुत से किरदारों के साथ ऐसा ही है। रानी पद्मिनी, अकबर की पत्नी जोधाबाई, पृथ्वीराज का शब्दभेदी बाण, सिंहासन बत्तीसी वाले राजा विक्रमादित्य और ऐसे ही ना जाने कितने किरदार हैं जो मिथक हैं लेकिन हमारी जिंदगी का हिस्सा हैं। हम तक़रीबन उन्हें सच मानने लगे हैं। फिल्मों, किस्से-कहानियों, उपन्यासों ने इन मिथकों को पुख़्ता ही किया है।

इतिहास जिसे प्रामाणिक और तथ्य से भरपूर होना चाहिए, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा काल्पनिक है और मज़े की बात ये है कि बहुत सारे इतिहासकार इन मिथकों को सत्य भी मानते हैं और उनके पक्ष में तर्क भी पेश कर देते हैं। कोई भी पक्ष अपने तर्कों से पीछे हटने को तैयार नहीं है।

दोनों पक्षों के तर्कों को एक बार परे रख दें तो भी हम इतिहास के मिथकों के हमारी ज़िंदगी पर प्रभाव को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। बहुत उत्कृष्ट साहित्य इतिहास के इन मिथकों के आधार पर रचा गया है। उस साहित्य को काट कर फ़ेंक देंगे तो भी हमारा बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुक़सान हो जाएगा।     

कबीर के नाम पर इतने दोहे प्रचलित हैं कि उन्हें कबीर का ना कहकर कबीर परंपरा का कहना ठीक होगा। वो सारे दोहे जो दूसरे कवि कबीर के नाम पर रचते रहे लेकिन जिनकी विचारधारा कबीर से मिलती जुलती रही और जिनमें हम ठीक तौर पर भेद नहीं कर सकते कि ये कबीर के मूल दोहे हैं या उनके शिष्यों/अनुयायियों ने उनके नाम पर रचा है उन्हें कबीर परंपरा का दोहा कह सकते हैं।

स्कूलों में पढाई जाने वाली कई साहित्य की किताबों में ऐसे दोहे हैं जो कबीर द्वारा रचित नहीं हैं पर जिन्हें कबीर का कहा जाता है।

“निंदक नियरे राखिये” ऐसा ही दोहा माना जाता है। पर एक तर्क ये भी है कि क्या फ़र्क पड़ता है कि इसे कबीर ने खुद नहीं रचा, अगर ये उनकी विचारधारा को आगे बढ़ता है तो क्यों ना इन्हें उनके नाम से पढ़ाया जाए? तर्क है, आप इनसे सहमत-असहमत हो सकते हैं लेकिन बड़े नामों के साथ ऐसा होता रहा है। लोग अपनी रचनाओं को प्रमाणिकता देने के लिए इन्हें बड़े नामों के नाम से चलाते रहे हैं।

हालाँकि अब ऐसा बहुत ही सस्ते और फूहड़ स्तर पर होने लगा है। गुलज़ार और ग़ालिब के नाम से कचरा परोसा जा रहा है और उस पर अंकुश संभव भी नहीं है, लेकिन वो अलग मुद्दा है।

“धूल चेहरे पे थी ग़ालिब, आईना साफ़ करता रहा”… खडगे जी ने इसे संसद में सुना दिया और अब ये संसदीय चर्चा का औपचारिक हिस्सा बन चुका है। पर ये ग़ालिब का शेर तो नहीं है।    

अगर हम गोरख, कबीर, नानक, सूर, मीरा, रहीम, रसखान, तुलसी या ऐसे ही बड़े नामों की मूल रचना को ही स्वीकार करेंगे तो उनके नाम से रची गई बहुत सारी उत्कृष्ट सामग्री से हाथ धो बैठेंगे।

यहाँ हमें अपनी कल्पना को थोड़ी उड़ान देनी ही होगी, यहाँ हमें इतनी स्वीकार्यता बढ़ानी ही होगी। बहुत पढ़े-लिखे लोग भी कबीर के मूल दोहों और कबीर परम्परा के दोहों का भेद नहीं बता सकते।

कल्पना हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है।  

इतिहास के महापुरुषों के साथ ये होता रहता है। जैसे जैसे उनकी छवि बड़ी होती जाती है उनके साथ किस्से कहानियां जुड़ते जाते हैं जो उनके व्यक्तित्व को और बड़ा बनाते जाते हैं। लोग सुनी सुनाई बातों को इतना दोहराते हैं कि वो किस्से पहले लोगों की जुबां पर चढ़ते हैं और फिर औपचारिक तौर से महापुरुषों की जीवनी का हिस्सा बनकर किताबों में जगह पा लेते हैं।   

घरों में देख लीजिए, लोग अपने दादा-परदादों के साथ ऐसी ऐसी बातें जोड़ देते हैं जो कोरी गप्प होती हैं, लेकिन एक के बाद एक पीढ़ी में दोहराई जाने वाली वो गप्प धीरे-धीरे परिवार का तथ्य बन जाती है। नए पैदा हुए बच्चे अपने बाप-दादाओं की झूठी महानता के किस्से दोहराते जाते हैं। कल्पना सत्य में परिवर्तित होती जाती है। परिवार और समाज के गर्व का साधन बनती जाती हैं।

बेहद तार्किक और नास्तिक इंसान राम के अस्तित्व से इन्कार कर सकता है लेकिन रामायण के जनमानस पर प्रभाव से कैसे इंकार करेगा? वो तो मूर्त रूप में मौजूद है। कृष्ण का प्रभाव तो पूरे जीवन पर है, उससे बचा ही नहीं जा सकता। चाणक्य के अस्तित्व पर लम्बी बहस की जा सकती है लेकिन अर्थशास्त्र के सिद्धांतों को तो मानना ही पड़ेगा क्यूंकि उसमें से कुछ सिद्धांत बड़े पुख़्ता हैं, जीवन में काम आने वाले हैंऊतो क्या हुआ, अगर वो एक काल्पनिक ब्राह्मण के मार्फ़त कहे जा रहे हैं। 

हमारा पूरा जीवन कल्पनाओं पर टिका है, अगर कल्पनाओं को धक्का देने लगे तो ढह जाएंगे।

शेयर मार्किट किस पर टिका है? अर्थव्यवस्था किस पर टिकी है?

जवाब है, कल्पना पर।   

इंसान जानवरों से बेहतर ही इसलिए है कि वो कल्पना कर सकता है। एक कागज़ के टुकड़े को उसने अपनी कल्पना से पांच सौ रुपए मान लिया है और कड़ी मेहनत के बदले वे काग़ज़ के टुकड़े आपका पारिश्रमिक बन जाते हैं।

इस दुनिया का चक्का रुक जाएगा अगर हमने कल्पना करना छोड़ दिया तो।

और आपके राष्ट्र क्या हैं? कल्पना ही तो हैं। आपने कहा कि ये ज़मीन के इस पार पाकिस्तान और उस पार भारत और हज़ारों लोग इस कल्पना को मानकर लड़ मरे।

वर्ण व्यवस्था जिसे सीने से चिपकाए हुए हो, जिसके खिलाफ़ लड़ रहे हो, वो भी कल्पना है।  

न्याय व्यवस्था, अच्छे बुरे की परिभाषा, ये सब कल्पना है।

धर्म, पूरा कल्पना पर टिका है।

किस-किस बात से इंकार करोगे? मानो ना मानो कल्पना हमारे जीवन का मूर्त रूप है, वास्तविकता है।

कितने भी तार्किक हो जाओ, लेकिन कल्पना के कुछ हिस्सों को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। करते ही हो, नहीं तो कागज़ के उन हरे-नीले-पीले टुकड़ों को सीने से चिपकाए ना रहते जिन्हें हमारी कल्पना ने मुद्रा माना है।

-सुदेश आर्या

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