
मनोवैज्ञानिक चिकित्सा- “स्वकल्प भावना” (Auto suggestion)
-सुदेश आर्या
शरीर और मन आपस में अभिन्न रूप से मिले हुए हैं। मानसिक हालात से शरीर एवं शारीरिक हालत सी मन हमेशा ही प्रभावित होता रहता है। जैसे सुस्वादु भोजन की कल्पना मात्र से ही मुंह में पानी भर आता है, वैसे ही जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हमारा मन होने लगता है। यह एक ‘वैज्ञानिक सत्य’ है कि यदि अवचेतन मन में यह विश्वास पैदा हो कि हमारा रोग अच्छा हो रहा है तो निश्चय ही रोग अच्छा हो जाएगा। चिकित्सक का आत्मविश्वास, उसकी दृढ़ आवाज और उसकी ख्याति एवं पोशाक ये तमाम चीजें रोगी के मन पर गहरा असर डालती हैं। डॉक्टर यदि रोगी को देखकर यह कहता है कि उसका बचना संभव नहीं है तो उसका बचना बहुत कठिन हो जाता है। कितनी बार तो डॉक्टर की असावधान युक्ति से ही रोगी की मृत्यु हो जाती है और कभी केवल आशा की युक्ति से बिना दवाई की ही रोगी चंगा हो जाता है।
कितने ही लोगों की यह आदत होती है कि रास्ते में आते-जाते किसी से मुलाकात होने पर झट कह देते हैं कि ‘तुम्हारा चेहरा तो बहुत उदास लगता है’, ऐसे लोग साधारणतया समाज के लिए अनिष्टकारी हैं। जब हम इस ढंग से किसी के मन में डर पैदा कर देते हैं तब उसके स्वास्थ्य की क्षति करते हैं। डर एक प्रबल भावना होती है। रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि “यदि सांप के काटने पर यह कहा जाए कि विष नहीं तब विष बिल्कुल नहीं चढ़ता और पीड़ित व्यक्ति बिल्कुल ठीक हो जाता है”.
यह एक अध्यात्मिक बात नहीं है बल्कि एक मनोवैज्ञानिक सत्य है, स्वकल्प भावना इसे बिल्कुल प्रमाणित करती है। 90% लोग सांप के विष से नहीं अपितु भय के कारण मौत के मुंह में चले जाते हैं। इसलिए अपने मन में आरोग्य मूलक विचार की आवृत्ति करने का नाम ही “स्वकल्प भावना” है। “मैं अच्छा हो रहा हूं” और “शीघ्र ही अच्छा हो जाऊंगा” “शीघ्र ही मेरी तंदुरुस्ती लौट आएगी” इस तरह के विचारों को दोहराने को ही “स्वकल्प भावना” कहते हैं। इस तरह दोहराते दोहराते निश्चय ही रोग काम हो जाता है। इसलिए लेटते समय जब दोनों आंख बंद होने लगती हैं या सुबह उठते समय जब पूरी नींद नहीं टूटती, तभी” सकल्प भावना” करने का सबसे अच्छा समय होता है। शरीर जितना भी अधिक शिथिल छोड़ा जाएगा अवचेतन मन की शक्ति उतनी ही अधिक वृद्धि पाएगी। अवचेतन मन को भावना देते समय कभी भी रोग के संबंध में विचार नहीं करना चाहिए। विरोधी विचारों को एकदम छोड़ देना चाहिए। हमारे शास्त्रों में आत्मज्ञान को नित्यम का फल कहा जाता है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि जो अपने को पापी पापी सोचता है वह पापी हो जाता है। मनुष्य अपने को महात्मा सोचते सोचते महात्मा ही बन जाता है। आत्मविश्वास को इसीलिए एक बहुत बड़ी शक्ति कहा गया है।
-सुदेश आर्या
