-केशव भट्ट (वरिष्ठ पत्रकार)
बागेश्वर, पिथौरागढ़, चंपावत, चमोली, टिहरी, ये केवल जिले नहीं, बल्कि उत्तराखंड के वो पर्वतीय क्षेत्र हैं, जिन्हें ‘दुर्गम’ की श्रेणी में रखा गया है. वर्षों से शासन और प्रशासन की नीतियों में इन क्षेत्रों को विशेष प्राथमिकता दी जाती रही है, कम से कम कागजों पर तो जरूर. लेकिन जब बात व्यवहार की आती है, तो ये दुर्गम क्षेत्र अपने ही कर्मचारियों के लिए सज़ा बन जाते हैं.

इसी उत्तराखंड का एक छोटा लेकिन जुझारू जिला है बागेश्वर. दुर्गम, कठिन और प्रशासनिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील. इस जिले में रहकर काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है. स्थानांतरण पॉलिसी का सवाल कुछ ऐसा टेढ़़ा है जैसे कोई पूछ ले, ‘अंडा पहले आया या मुर्गी..?’
सुगम वाले कभी दुर्गम में आने को मनसाते नही हैं. दुर्गम में कार्यरत अधिकारी, कर्मचारी उन्हें फूटी आंख नही सुहाते. और इधर दुर्गम में कार्यरत इन अधिकारी, कर्मचारियों को ज्यादा कोई शिकायत नही ही रहती है. ज्यादातर अधिकारी और कर्मचारियों तो इन चुनौतियों को आत्मसात ही कर अपने काम में जुट जाते हैं. अकसर धनहित के नाम पर इस तरह की आत्मीय वाली मानसिकता वालों को अचानक ही जनहित के नाम पर स्थानांतरण के नाम पर इनामनुमा सज़ा देने का प्रचलन भी खूब देखने को मिलता है.
हाल ही में बागेश्वर जिले में तमाम विभागों, स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस, कृषि और लोक निर्माण विभाग में कार्यरत कर्मियों के अचानक ट्रांसफर कर दिए गए. ये वही लोग हैं जिन्होंने इस ज़िले को केवल ड्यूटी स्टेशन नहीं, बल्कि अपना घर माना. उनके बच्चे यहीं पढ़ते हैं, समाज में उठते-बैठते हैं और समाज के सुख-दुख के साझेदार बन चुके हैं.
लेकिन एक दिन अचानक आदेश आता है, ‘आपका स्थानांतरण जनहित में किया गया है.’ जनहित किसका? यह कभी साफ नहीं किया जाता. और जब पर्दे के पीछे की हलचलें देखी जाती हैं, तो पता चलता है कि यह ‘जनहित’ अक्सर ‘धनहित’ में बदल चुका होता है.
आज ट्रांसफर केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक पूरी इंडस्ट्री बन चुकी है. यह तय होता है कि किसका ट्रांसफर रुकेगा और किसका होगा. इस बात पर कि वह व्यक्ति सिस्टम में कितना ‘समझदार’ है, यानी किनसे और कैसे जुड़ा है. जो व्यवस्था में पारदर्शिता लाना चाहता है, वह सबसे पहले अयोग्य घोषित होता है. जो ‘अनुकूल’ बनता है, उसकी जगह सुरक्षित रहती है.
कई मामलों में देखा गया है कि ईमानदारी से कार्य कर रहे कर्मियों को परेशान करने के लिए स्थानांतरण आज एक टूल बन चुका है. और वजह क्या? बस इतनी कि उनका झुकाव व्यवस्था के बजाय कर्तव्य की ओर होता है और ये झुकाव, कई लोगों को बर्दाश्त नहीं होता.
अब इस सवाल का जबाव किससे मालूम चलेगा कि, क्या दुर्गम क्षेत्र में रहकर काम करना अब एक अपराध बन गया है? जब कोई शिक्षक वर्षों तक दूरस्थ विद्यालय में कार्य कर बच्चों को पढ़ाता है, तो उसकी जगह बदल दी जाती है. जब कोई स्वास्थ्यकर्मी गांव की महिलाओं के प्रसव करती है, तो उसे अचानक किसी ‘महत्वपूर्ण स्थान’ पर भेज दिया जाता है. क्यों? जवाब कहीं नहीं है. या यूं कहें कि जवाब नहीं देना ही सिस्टम का नया जवाब है. जो लोग सुविधाओं से दूर रहकर, असुविधा को अपनी नियति मान लेते हैं, वे ही आज सिस्टम के लिए असहज बन गए हैं. सिस्टम को उनकी शांति रास जो नही आने वाली ठैरी..?
अगर व्यवस्था में बैठे लोग उन लोगों को ही सज़ा देने लगें जो व्यवस्था को संभाल रहे हैं, तो ये स्थानांतरण नहीं, बल्कि एक गहरी साजिश है.
वैसे..! यहां सेवा भाव ही सबसे बड़ी गलती है. क्योंकि जो व्यवस्था को सही दिशा में ले जाना चाहता है, सिस्टम को उसे दिशा से ही हटाने में मजा जो आने वाला ठैरा बल..!!”
वैसे कोई बता सकता है कि, ये ट्रांसफर नीति होने वाली ठैरी या ट्रांसफर राजनीति?