राजा के बन्दर वाली कहानी और ‘जीवन’

-सुदेश आर्या

आओ फिर से जिएं

राजा ने बन्दर को सेवक के तौर पर रखा। राजा सो रहा था, बन्दर पंखा झल रहा था। राजा की नाक पर मक्खी बैठी। बन्दर ने मक्खी को मारने के लिए तलवार उठाई और चला दी। राजा मारा गया।

हथियार किसके हाथ में दिया जाए, ये भी जानना ज़रूरी है। साथ ही ये भी कि हथियारों का कोई दोष नहीं होता, ग़लती उन्हें चलाने वाले की होती है। हथियारों का सही जगह उपयोग किया जाए तो बड़े कारगर भी साबित हो सकते हैं।              

सोचने वालों ने बहुत गूढ़ सोचा। जड़बुद्धियों ने उसकी व्याख्या जड़बुद्धि से ही की। विरोधियों ने जड़बुद्धियों की व्याख्या को ही सही माना और फिर मूल विचार का मख़ौल बनाना शुरू कर दिया। बंदरों के हाथ में तलवार आ गई और सांस्कृतिक रूप से सब खून-खच्चर हो गया।

एक विचार है ‘आश्रम व्यवस्था’ का, जिसके अनुसार सौ बरस के जीवन को पच्चीस-पच्चीस बरस के चार आश्रमों में बांटा गया है,
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।

पहले आश्रम को शिक्षा के अर्जन का समय बतलाया गया है, दूसरे को धन का और तीसरे को यश और कीर्ति का। अगर गहरा सोच कर देखेंगे तो इस व्यवस्था में जीवन जीने का सलीका छिपा हुआ है, लेकिन हम लोग जैसे ही इस तरह का कुछ देखते हैं तो सबसे पहले उस पर धर्म की स्टैम्प लगाते हैं और फिर मख़ौल बनाना शुरू कर देते हैं। हमें ये भी तो देखना चाहिए कि चाहे हम आस्तिक हों या नास्तिक, चाहे किसी भी धर्म से ताल्लुक रखने वाले हों, जीवन जीने का सलीका सीखने में तो कोई बुराई नहीं है।

वानप्रस्थ आश्रम को देखें तो हिन्दुस्तानी समाज में बुज़ुर्गों को जीवन जीने का सही सलीका अब तक किसी ने सिखाया नहीं है। या यूँ भी ना कहें कि किसी ने सिखाया नहीं, बल्कि हकीक़त ये है कि हम भूल गए। आश्रम व्यवस्था ने तो सिखाया ही था।

अपने आसपास के बुजुर्गों को देखिए, उनको नहीं जो यहाँ मौजूद हैं और पढने-लिखने-सीखने में रूचि रखते हैं, वो तो बस नाम मात्र के हैं। आम जीवन में देखें तो अधिकतर बुज़ुर्ग कुछ चुनिन्दा काम करते नज़र आते हैं। पानी-बिजली के बिल भरवाते, घिसे हुए घुटनों से अपने नाती-पोतों को पालते, उन्हें स्कूल छोड़ते-लाते या फिर शाम को मंदिरों-पार्कों में बैठकर बड़ी मुश्किल से समय काटते हुए।
        
पचास-पचपन-साठ के होते-होते एक औसत माता-पिता अपने बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुके होते हैं। मेडिकल साइंस की मेहरबानी से अभी उनके पास अच्छे पंद्रह-बीस साल होते हैं जब वो आराम से चल फिर सकते हैं और इस उम्र में मध्यवर्ग की जेब में पैसे भी होते हैं। लेकिन ये नहीं पता होता कि अब करें क्या?

हमने हमारे कल्चर में नया कुछ सीखने की परंपरा से पल्ला झाड़ लिया है तो जहाँ यूरोप के बुज़ुर्ग संगीत-नृत्य-कला या फिर एडवेंचर, स्पोर्ट्स तक में अपना हाथ आजमाते हैं। हमारे यहाँ के बुज़ुर्ग नए सिरे से नाती-पोतों को पालना शुरू कर रहे होते हैं। शब्द अच्छा नहीं है लेकिन हकीक़त यही है कि ज़्यादातर बुज़ुर्ग औरतें अपने घरों में ‘आया’ बनी हुई हैं और उन्हें ये अपना धर्म भी लगता है।
अब किसी को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से ही प्यार हो जाए तो क्या किया जा सकता है?

पुरानी फ़िल्मों में देखिए, एक सीन बार-बार दोहराया गया है कि नई बहू के आते ही समझदार सास चाबियों का गुच्छा उसके हाथ में संभला देती है कि अब मुझे इस ज़िम्मेदारी से मुक्त कर।

ये क्या है? यही वानप्रस्थ है।

वानप्रस्थ का मतलब ये नहीं है कि जंगल में जाकर बैठ जाओ। वानप्रस्थ का मतलब ये है कि अब अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों से मुक्त होओ, जो आसक्ति अपने परिवार में आ गई थी उससे पल्ला झाड़ो और अपने और समाज के वैचारिक विकास में जुट जाओ।

आपके बच्चे भी आपसे आज़ादी चाहते हैं। वो गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर चुके हैं, उन्हें पता है कि क्या सही है और क्या ग़लत है। घड़ी-घड़ी उनकी ज़िंदगी में दख़ल देने की बजाय अपना विकास करो। अपनी कितनी पीढ़ियों को तुम ही संभालोगे?

कुछ नया सीखो, नया पढ़ो, नया देखो, दुनिया घूमो, नए लोगों से मिलो।       

एक अच्छी कहानी की एक शुरुआत होती है एक मध्य और एक शानदार अंत। शुरुआत और मध्य कितना भी अच्छा क्यों ना हो, लेकिन अगर अंत किसी को पसंद ना आया हो तो वो कहानी फ्लॉप हो जाती है।

आखिरी के बीस साल हमारे कहानी का अंत है। हमारे जीवन की कथा का क्लाइमेक्स।

क्लाइमेक्स को शानदार होना ही चाहिए।   

रिटायर्ड ज़िंदगी एक नेमत है। अभी मर नहीं गए हो, जीवित हो। जब तक सांस ले रहे हो तब तक जीवित हो। गृहस्थी के जिन प्रपंचों में अब तक उलझे रहो हो, उससे बाहर निकलो और दुनिया देखो, कुछ नया सीखो, अपने को फिर से विद्यार्थी बनाओ।  

वानप्रस्थ के ये पच्चीस साल बेहद कीमती हैं। जीवन में नई उमंग भर सकते हैं, नई खुशियाँ ला सकते हैं। ये सब कुछ हो सकता है, लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि बरसों बरस से चलता आ रहा ढर्रा छोड़ा जाए। अपने नज़रिए को बदला जाए। ज़ंजीरों को तोड़ा जाए और जीवन को नई उमंग और ताज़गी से भरा जाए।

अगर तैयार हो तो ठीक है, नहीं तो घर में सब्जी ख़त्म हो गई है ज़रा बाज़ार से आधा किलो भिन्डी ले आओ।

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