स्वदेश बुलेटिन
एक बात जो सबसे ज्यादा चकित करती है, वह है इन सारे पक्षियों का आपसी ताल-मेल। कभी-कभार छोड़, कोई भी किसी दूसरी प्रजाति के साथ छीना-झपटी या धक्का-मुक्की करते नहीं दिखता! बिना किसी को हैरान-परेशान किए धैर्य पूर्वक अपनी बारी का इन्तज़ार कर अपना हिस्सा प्राप्त करते हैं।
चिड़ियों-पक्षियों के लिए दाना-पानी तो तकरीबन सभी मुहैय्या करवाते हैं, पर इन अतिथियों की हरकतों पर नजर कम ही जाती है। उनकी अपनी दिनचर्या होती है, हमारे अपने क्रियाकलाप। पर पिछली कोरोना की महाविपदा में समय की प्रचुरता ने इनकी चुहुलबाजी की ओर भी ध्यान दिलवाया और तभी से इनकी गतविधियां मनोरंजन का वॉयस बन गई हैं। कोशिश रहती है कि सुबह-सबेरे कुछ पल इनके लिए भी सुरक्षित रह पाएं !
गौरैया का अस्तित्व तो आज ख़तरे में है। कभी कभार ही बहुत ही कम संख्या में देखने को मिलती हैं। इनके चीं चीं, चूं चूं के शोर से कभी भोर हुआ करती थी तो मन चहक उठता था। इनका धूल में फुदकना बारिश आने का संकेत होता था।
कौए, जिन्हें शायद ही कोई पसंद करता हो, लेकिन ये बहुत ही नफ़ासत-पसंद होते हैं। वे चुपचाप आकर अपने भोजन के पास बैठते हैं, गर्दन घुमा जायजा लेते हैं। सतर्क रहते हुए जो भी खाना हो, उसका एक हिस्सा अपने पंजे में दबा, थोड़ा-थोड़ा खाना शुरू करते हैं या फिर चोंच में भर उड़न छू। चोंच भर कर ले जाने वाली जरूर माँ होगी। यह जीव कभी भी भोजन को बिखराता या इधर उधर गिराता नहीं है। इनके द्वारा पानी भी बड़े सलीके से पीया जाता है।
इसके ठीक उलट हमारे कबूतर महाराज होते हैं। उन्हें शायद खाद्य के छोटे टुकड़े करने नहीं आते। एक टुकड़ा चोंच में दबा गर्दन झटक-झटक कर उसे खाने लायक बनाते हैं, इस प्रक्रिया में खाते कम गिराते-बर्बाद ज्यादा करते हैं। गंदगी फैलाने में भी इनकी अहम भूमिका होती है। एक दूसरे को धकियाते-भगाते भी रहते हैं। इनका पानी पीने का अंदाज भी कुछ अलग है, चोंच में जरा पानी ले गर्दन ऊपर झटक उसे निगलते हैं।
मैना अपने में मस्त रहती हैं। मुख्य ढेर के अलावा बेझिझक इधर-उधर घूमते हुए, गिरे हुए कण भी चुग लेती है। हर बार अपना ही घर समझ यह पाखी जोड़े में ही आता है। उपरोक्त सारे पक्षी जितने शान्ति प्रिय लगते हैं, तोते उतना ही शोर मचाते हैं। हर समय चीखते-चिल्लाते इधर-उधर मंडराते हैं। उनको कुछ खाकर भागने की भी बहुत जल्दी रहती है। जो भी हो। पर होते बहुत सुन्दर हैं। प्रकृति की एक अद्भुत कलाकारी।
इन्हीं के बीच दौड़ती-भागती सदा व्यस्त रहने वाली गिलहरी का तो कहना ही क्या, उसके तो अपने ही जलवे होते हैं।
इन सबकी प्यारी हरकतें, प्रयास, चुहल से एक हल्केपन का एहसास होने लगता है। तबियत तनाव मुक्त हो जाती है। जब ये जीव आपके आस-पास रहते, मंडराते हैं तो भोजन के अलावा अपनी और भी जरूरतें यहीं से तो पूरी करेंगे। इसलिए इनका जब घोंसला बनाने का समय आता है तो कुछ घरेलू चीजों पर आफ़त आ जाती है। झाड़ू के तिनके, चिक के कपड़े का धागा, कहीं से झांकती रूई, पौधों की सूखी डंडियां, ऊन के टुकड़े, पॉलिथीन के छोटे टुकड़े और ना जाने क्या-क्या, जो इनको अपने मतलब लायक लगता है उसे साधिकार उठा ले जाते हैं। यह सारा प्रयोजन किसी छोटे बच्चे की शैतानी की तरह होता है, जो शरारत करते समय लगातार आपकी प्रतिक्रिया का भी अंदाज लगाता रहता है।
कभी इनकी बोलियों पर भी ध्यान दीजिए तो पाएंगे कि अलग-अलग परिस्थितियों में इनकी आवाज का सुर भी अलग-अलग होता है ! प्रेमालाप में अलग राग। सामान्य अवस्था में अलग तान। गुस्से में अलग सा निनाद और खतरा भांपते ही भीषण चीत्कार। जो भी है, इन नन्हें मासूम परिंदों की अपनी अलग दुनिया भले ही हो पर ये ना हों तो हमारी ज़िंदगी भी बेरंग हो जाए।
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